एक लड़की और जंगली फूल

•••एक लड़की और जंगली फूल••

जंगल के पथरीले डगर में..
चलते सोच रही अनमनी सी
तालाब पार में कांश के फूल देख
बैठ गयी किनारे मैं बैचैनी से..
सफेद बगुले का जोड़ा पानी में
तो एक तितली मंडरायी हथेली में
खड़ी थी तालाब के पास, पर..
डूब रही थी विचारों के तालाब में
डायरी थी एक पुरानी और था ख्याल
बैठ लिखने लगी,था कलम हाथ में..

कि –
ये साल दर साल
पतझड चला गया।
झरते पत्तो की तरह सुकून झरे मेरे।
रिमझिम बरसात आयी..
अविरल धारा सी नैनो से नीर बहे मेरे।
शरद की चांदनी
और उद्विग्न होते हुए शुभ्र ओस सा जमे रहे।
कितना जल्दी बीतता है न
ये वक्त!!
उस पर जड़त्व का नियम..
कब तक लागू रहेगा.. आखिर!

अगर मैं लिखूं..
ऐसा एक भी रात न रहा हो
जिसमें सपनो में अक्स न उभरा हो
तो मुझे एक शब्द भी न कहा हो।
वही शब्द..कुछ रूई सी हल्के
या फिर काले बादल सा बोझिल..
निबौरियो की तरह कड़वे खरे
या मधू पराग सी स्निग्ध-स्नेहिल..

योजक होते है ये शब्द..
कही ऐसा न हो कि
ये भावनाओ की झील
इन्जार की धूप से सूख जाये..
एक ख्याल.. और स्पंदित होता ह्रदय
समय के सरकते रेत संग
वो स्पंदन रूक जाये..

खैर..
न ही मैं जानती हूँ की ख्याल
आपको मेरा आता है की नहीं।
कौन हूँ ? क्या हूँ ?जिज्ञासा की लपटे
कभी जलाता है की नहीं।
मुझे इस बात से
कोई सरोकार नहीं है।
मेरे प्रति भावना शुन्य है या ऋणात्मक
इससे भी मिझे कोई प्रतिकार नहीं।
10 औंस के इस दिल में
नहीं जानती जगह है कि नहीं ।
मगर 3 पौंड के उस दिमाग में
कुछ ख्याल घुमड़ता है की नहीं?
कभी कभी खुद इस प्रश्न के
साथ उलझ जरूर जाती हूँ.. मगर!

पर, इतना है की मैंने अपनी जिंदगी की डोरी
एक धुरी से बाँध दिया
एक धुरी किस पर अपना ख्याल केन्द्रित करते गयी।
एक धुरी जिसके परितः अपना ख्वाब बुनती गयी।
एक धुरी जिसके परिधि पर अपनी दुनिया सहेजती गयी।
एक धुरी जिसे आधार समझ भावनाओ की ईट जोड़ती गयी।
वो धुरी..

पता है!
कुछ खास से लगते हो..
इतना खास जैसे की-
एक तपतपाती मरूभूमि में छाँव देता वृहद् बरगद।
एक बीहड़ घाटी से सुरम्य उपवन को ले जाती डगर।
एक क्यारी में कांटो के बीच महमहाती पंखुड़िया।
एक रुक्ष बंजर जमीं को भीगाती इठलाती हुई नदिया।
इनसे भी ज्यादा खास हो…वैसे
खास होने की कोई वजह पूछ ले
शायद न बतला पाऊं
यूँ ही बेवजह..
कह कर
उनकी बात झुठला जाऊ

देखिये! कुछ नहीं बदला है
मैं नहीं बदली..
भावना नहीं बदली
अपेक्षाए भी तो कितनी कम रखती हूँ
है तो वो भी इतनी छोटी छोटी
कि कभी मिलूं तो मुस्कुरा दिया करना
अपनी खैरियत बता दिया करना
कुछ ऐसा एहसास कि
दूर रहकर भी आपके पास रह सकूँ..
और पास होकर भी आपसे दूर..
अपनी रहूँ पर निजता भंग न कर सकूँ..
समझिये! ठंडी बयार की तरह..
आसपास रहूँ..एहसास बनूँ
पर, घुटन की वजह न बनूँ…

दीक्षा बर्मन

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