बारिश के मौसम में,
करोन्दे के शाख में लटका फल।
करोंदे के स्वाद को कर याद
लड़की के मुँह में भर आया जल।
लगे थे कुछ हरे, कुछ लाल
चुनकर लायी, बांध ली थी अंचरा में..
रखी थी नमक मिर्ची की पुड़िया
और धो लिए करोन्दे रास्ते के नरवा में..
पूस के जाड़े में वो लड़की..
टोकनी ले निकल जाती भिनसारे।
मेड़ किनारे बेर के पेड़ो को,
डांग से झोरिया कर, गिरा लेती सारे।
कुछ पक्के, कुछ गदराये बेर
बीनकर लाती वो टोकनी में..
लाकर घर बेर, सूखा दी उसको
पैरा बिछाकर घर की छानी में..
फागुन के मदमास में,
ध्यान था उसे तेन्दु के डाल का।
पक आये थे गोल,तेन्दु सुनहरे,
झोला लिए जाती,जंगल तेन्दु साल का।
पके पके मीठे तेन्दु को
भर लेती वो झोले में..
आज बेचेगी तेन्दु बुधवारी बाजार में
भरेगा बटुआ, सोच मुस्कायी हौले से..
बैशाख के नवतपा में,
भाई संग पहुंची अमराइया में।
चढ़ा भाई आम के डाल में ,
गिरे आम को भर लेती झोलिया में ।
कच्चे – गदराये, बड़े – कोलपद्दे आम
भर लिया उन्होंने सायकल में
बनाना है उसे आम का अथान
कुछ अमचूर, कूटे है मसाले कल से..
ये करोन्दे, बेर, तेन्दु और आम
को वो सहेजती- सकेलती जतन से
और करोन्दे चुनते गाती गीत भोजली
पूस में बेर बीनते उसका करमा गाना..
फागुन में गुनगुना लेती ददरिया को
और अमराइयाँ में चंदैनी गा के दुख बिसराना
वो सीख चुकी थी समेटना
चीज़ो को जरूरतों के कारण..
वो लड़की जानती है सहेजना
यादों को, बिसरे जो हालातो के कारण..
जानती वो लड़की
बस! यह नियति का पहिया है..
जीवन कभी धूप कभी छइया है..
रचना – दीक्षा बर्मन