खाद के कांवर को परवा नीचे रख, किसान बैठे पीढ़े में दीवार से पीठ टेक। पसीना उसके माथे से चुहता देख किसानिन ने सरकाया लाल गमछा एक। और बोली –
सुस्ता लो तब तक पंखा झलती. किया किसान ने मना. कहा – नहीं! जल्दी बना लो जेवन भूखा है ये पेट किसानीन मुस्कायी और बोली –
लो यह साबुन नीम का और नहा आओ बना रही तरकारी भात एक से एक किसानिन ने देखा परवा में कुछ कच्चे कुछ लाल..
चढ़ा है कुंदरू का नार सूपा ले आयी खूंटी से निकाल.. ऊँचा है नार, तोडना है डंगना से। साड़ी खोसकर कमर में, झाडी गिरे कुंदरू सब, उसके अंगना में।
चूल्हे में आग जला रखी कढ़ाई लहके छेना का आग, डाली तेल राइ। चटका जीरा, सरसो लहसुन का फोरन और फैला प्याज़ की खुशबु सौंधाई।
काट रखा था कुंदरू उसने धोकर डाली कढ़ाई में और ढक दी पराई।
आग की लपटे और छेना की आंच पके मद्धम कुंदरू की तरकारी (तभी ध्यान आया उसे अरे भरी है लाल पताल की बारी।
चिमटा से पताल को आग में डाल गयी तोड़ने मिर्ची और धनिया की डंगाल फ़ैल चुकी थी पकते तरकारी की महक। उसके हथेलियों में भी धनिये की गमक।
भुने पताल मिर्ची धनिया को सील में रख पीस लिया उसने पताल की चटनी। काली हंडिया में अरहर की डाल लगे पकने, उसमें डाली लकड़ी की मथनी।
हल्दी नून धनिया, और छिड़की मसाला तरकारी कुंदरू की, जिसकी खुसबू भीनी। किसान ने दिया आवाज – लगा दो जेवन. और लगा दिए गीले कपड़ो को अरगनी।
और परोसी किसानिन ने थाली जवाफुल का भात, पताल चटनी चटकारी। रखे कटोरी में अरहर की दाल, और परोसी गरमा – गर्म कुंदरू की तरकारी।
और देहरी पर बैठ जोहती किसानिन. कि कहे तो मैं परोसा ले आऊं। सोचती वो, धन- धान से भरा मेरा अंगना, हे कुलदेवता! तोरे पैर परु,बलिहारी जाऊ…
रचना – दीक्षा बर्मन